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Saturday, December 21, 2019

जालोर का विकास : बदलवा

                  जालोर का विकास!!

शहर किसी की बपौती नहीं है, यह किसी की जागीर भी नहीं है!
आप सोच रहे होंगे कि आज इसको क्या हो गया?
आप का सीधा शक मेरे और नशे के संबंध पर जा रहा होगा और ये जायज भी भी है, क्योंकि आज शनिवार है!

वैसे तो सभी को पता है कि विद्यार्थी और वो भी अपने घर से बाहर, ऊपर से कॉलेज का स्टूडेंट, और तो और ऊपर से शनिवार......... असली आनंद तो जिंदगी के इस शनिवार का है। ........और ऊपर से ऐसी बकैती ........आपका शक एकदम जायज है!

लेकिन आप का शक सिरे से ख़ारिज करते हुए मुझे बड़ा खेद है क्योंकि परसों से मेरे सेमस्टर के फाइनल एग्जाम स्टार्ट हो रहे है।
खैर मुद्दे पर आते है, एग्जाम तो साला पिछले पंद्रह सालों से देते ही आ रहे है !
तो बात चल रही थी कि शहर किसी की जागीर या वसीयत नहीं होती है, लेकिन जालोर तो मेरी जागीर है .....इससे भी बढ़कर मेरी जान है।

इस शहर (जालोर) को मैंने पल पल जिया है, मैंने अपने आँखों से इसको बड़ा होते देखा है। मेरा और इस शहर का विकास भी साथ-साथ हुआ है, कब बच्चे से बड़े हो गए हम दोनों पता ही नहीं चला!
अब दोनों वयस्क हो गए है.....वो अपने हाल पर और मैं यहाँ किसी दूसरे शहर में!
जब हम बचपन में थे, तब पहनावे और रहन-सहन का कोई ढंग-ढाला नहीं था......अच्छा दिखना और रहना कहां,किसको कुछ मालूम था। दोनों अपने फक्कड़पन और औघड़पन में मस्त थे।

हमारे रहन-सहन और पहनावे में पहला परिवर्तन तब आया जब हमने स्कूल में दाखिला लिया। माँ सुबह अच्छे से नहला कर, बालों में सरसों का तेल लगाकर, एक मोर (पंख) मुकुट चौटी बनाकर, ढेर सारा पाउडर लगाकर ललाट पर काजल की एक बिंदी देती थी।

ऐसा ही पहला परिवर्तन दिखा मेरे जालोर में, जब ये शहर भी उन दिनों आहोर चौराहे से आगे फैला गया था...…...तब नहर के आगे रेलवे स्टेशन के पास पड़े बबूल के मैदान को साफ करके नई-नई कॉलोनियां बसाई गई थी, जिसमें ऋषभ नगर, रूप नगर और दूसरी तरफ बड़ी पोल के बाहर का क्षेत्र यानी पंचायत समिति के आगे के क्षेत्र में सरकारी कॉलोनी(GAD) बन चुकी थी, उससे थोड़े आगे ITI के ढलान में भी कुछ घर बन चुके थे...........हम दोनों का यह परिवर्तन अपने अभिभावकों ने किया था...... इसमें हमारा कोई लेना-देना नहीं था।

इसके बाद दूसरा परिवर्तन आया, जब हम थोड़े जवा हुए। यानी हम नौवीं कक्षा में आये......दुनियादारी की थोड़ी-सी समझ आई। अब खुद नहाकर, सेटवेट का बॉडी स्प्रे लगाकर, बालों में जेल लगाकर, चेहरे पर फेयर एंड हैंडसम लगाकर.........विदेशी शैली के बाल कटवाकर और साइड में कट, वो भी जेड फ़ॉर ज़ेब्रा वाला!

दूसरा परिवर्तन जालोर का भी कुछ ऐसा ही रहा। सबसे पहले मेरे बालों की विदेशी शैली के तर्ज पर इसके बबूलों को काटा गया। यानी नहर के बीच में उगे बबूलों को साफ कर दिया गया और जालोर के सभी प्रमुख चौराहों को चमका दिया गया.......आहोर चौराहे से लगाकर पिपली (हरदेवजोशी) सर्कल तक!.........दोनों चौराहों पर डिस्को फव्वारों के साथ रंग-बिरंगी लाइटिंग भी लगवाई गई!
रेलवे स्टेशन को मीटरगेज से बदलकर ब्रॉडगेज कर दिया गया।

दोनों के परिवर्तन लोगो को दिखने और सताने लगे थे। थोड़े टाइम ही यह परिवर्तन रहा था दोनों की लाइफ में...........तभी तो थोड़े समय बाद चौराहे के फव्वारे और लाइटिंग दोनों खराब हो गये थे!
और मेरा भी यही हाल हो गया....लोगो का मेरा रिलेशनशिप देखा नहीं गया, उनकी आँखों में खटकने लगा.…...स्कूल में साथियों ने प्रिंसिपल से शिकायत कर दी!
प्रिंसिपल ने पहले तो खूब धोया और उसके बाद मेरी ही प्रेमिका से मुझे राखी बंधवा दी..…....रही कसर घर वालों ने सौन्दर्य प्रसाधन पर प्रतिबंध लगाकर पूरी कर दी।
रेलवे की तर्ज पर मेरा भी दाखिला चेंज कर बॉयज स्कूल में  कर दिया!

अंतिम परिवर्तन दोनों की जिंदगी में एक बहुत बड़ा बदलाव लेकर आया.......जिंदगी आधुनिकता के आगोश में समा गई!

शहर में हॉस्पिटल चौराहे के आगे, कचहरी परिसर के पास चाइनीज फ़ास्ट फ़ूड की लौरिया लगने लगी। आहोर चौराहे पर PCD कॉफी कैफे खुल गया........अब शहर के प्रेमी जोड़े नेहरू पार्क को छोड़कर इसमें जाने लगे थे.........अब डर खत्म हो गया था....….आसानी से घण्टों बिता सकते थे, अपनी अपनी प्रेयसी के साथ......एकदम महफूज!

नेहरू गार्डन की तो काया ही पलट दी गई थी..........तरह तरह के पेड़, घास और झूले लगाये गये........ रंगाई-पुताई......नाम में भी आंशिक परिवर्तन कर नेहरू बालोद्यान पर दिया गया!

यकायक हुए इस अंतिम परिवर्तन को हम जी नहीं सके क्योंकि इस समय हम आर्थिक रूप से खस्ता हालात में थे!
फिर भी कुछ वक्त गुजारा है इस अंतिम परिवर्तन में, जब हम बारहवी कक्षा में थे। सब अपनी अपनी प्रेमीका के साथ PCD में जाते थे और हम साला अपने मित्र अशोक को लेकर चामुंडा स्वीट होम जाकर कचौरी खाते थे!

और इस अंतिम परिवर्तन में हम विस्थापित की भांति भी थे। क्योंकि बारहवी क्लास पूरी हो चुकी थी, इस कारण कभी जोधपुर तो कभी जयपुर रहना पड़ा था।

यह सब एहसास अबकी बार भोपाल आते वक्त हुआ......आते वक्त जब घर से निकला था तो गली के मोड़ पर अंतिम बार घर के आगे खड़े बादाम के पेड़ को तब तक देखता रहा था, जब तक वो धीरे-धीरे दिखना बंद नहीं हो गया था!

पूरे सफर में यही सोचता रहा कि कब तक आखिर ये बिछड़ना जारी रहेगा......कब जाके ये वनवास खत्म होगा!

मेरे शहर का और मेरा मिजाज भी एकदम अलग है.…...करते मन की है, जैसे परसो मेरे एग्जाम है और हम यहाँ आपसे बाते...…..दूसरी तरफ देश CAA के खिलाफ नारेबाजी कर रहा है और मेरा शहर इन सब से कोसों दूर है!

ये गालियां ये चौबारे यहाँ आना न दुबारा.….…........!!

🙏©हितेश राजपुरोहित "मुडी"

Thursday, December 12, 2019

मैं और मेरी तन्हाई


                       
दिसंबर का महीना, कॉलेज का परिसर और उस परिसर में खड़े विशाल दरख़्त (पेड़) आज मायूस से प्रतीत हो रहे है।
पत्तियों से आच्छादित होने के बावजूद, किसी ठूँठ से नजर आ रहे है, कोई हरकत नहीं, एकदम निश्चल !........सबकुछ

खामोश, एकदम नीरव.............पूरा कॉलेज परिसर!

मैं और मेरी तन्हाई एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर कॉलेज के गार्डन में चल दिए........ सर्दी के कारण गार्डन की घास में कुछ नमी है। मेरी तन्हाई, मुझे आलिंगन करने को बेताब है, लेकिन मैं आज किसी ख़्याल में उलझकर रह गया हूँ। आख़िर ये ख़्याल आया कहाँ से ?


इसी सोच में डूब गया, तन्हाई ने न जाने किस पल मुझे आलिगंन में आत्मसात कर लिया......फिर भी मैं अपनी सोच में मशगूल हूँ। आसमान आज बादलों से भरा पड़ा है........धूप शायद आशियाने में लौट चुकी है, ठण्डी-ठण्डी बर्फ़ली-सी हवाएं मेरे ललाट और अधरों को आकर स्पर्श कर रही है। मैंने अपनी आँखों को बंद कर दिया है, लेकिन ये ठण्डी हवाएं मेरे हाथों के रोंगटे खड़े कर रही है। मैं अपनी आँखों को बंद कर विचारशून्य और भावशून्य महसूस कर रहा हूँ...... बादलों की गर्जना मनमोहक लग रही है, मेरा कही जाना शेष नहीं है और मेरी कोई गति नहीं है।

खामोश पड़े दरख़्तों में तेज हलचल शुरू हुई, सहसा तेज बारिश ..........हवाओं के साथ तेज बूंदाबांदी का दौर शुरू हो गया!............काले घनघोर बादलों ने आसमान घेर लिया, ठण्डी हवाएं अपना प्रचंड रूप ले चुकी है .......अब मैं इन हवाओं को सहन नहीं कर पा रहा हूँ, मैं सर्दी के कारण कांप रहा हूं!
परिसर पानी से थोड़ा भर गया है.....यायावरी बादलों को उसमे देखना बेहद खूबसूरत लग रहा है......आज मैं वाकई प्रकृति के साथ अपने जीवन को जी रहा हूं, कितनी खूबसूरती से भरी पड़ी है ये प्रकृति!

प्रकृति की ये खामोशी कितना मनमोहक संगीत सुना रही है......अद्भुत!!........ये मिट्टी की सौंधी खुशबू , मेरे किरदार को महकाने के लिए किसी संजीवनी बूटी सी लग रही है!!

बारिश थम चुकी है......आसमान सफेद रुई समान बादलों से भिन्न-भिन्न मुखाकृति बना रहा है.....आह!!
ये बादलों में बना चेहरा, मेरे प्रियसी के मुखमंडल से कितना मेल खाता है......दोनों की सुंदरता लफ्जों में बयां नहीं हो सकती!.........बस चेहरे पर एक अनायास खुशी छा जाती है!!

✍️©हितेश राजपुरोहित "मुडी"

Friday, December 6, 2019

चाय पर चर्चा!

                             चाय पर चर्चा !
गर्म चाय के गिलास में से निकलती भाप और सिगरेट का धुँआ सर्दी के वजूद को आहिस्ता-आहिस्ता नजरदांज कर रहा था, हल्की सुनहरी धूप मेरे चेहरे को दीप्तिमान ज्वाला सी चमका रही थी। 
लंबे-लंबे सिगरेट के कस, धुँए से बनते छल्ले और समोसे की महक .........मौसम अपने रंगीन अंदाज में था!

आज पत्रकारिता कॉलेज के छात्रों का जमावड़ा "राष्ट्र" के मुद्दे पर गर्मागर्म बहस कर रहा था।
चाय की थड़ी पर, एक बैंच पर धुर राष्ट्रवादी सोच के नवांकुर दक्षिणपंथी विचारक बैठे थे और उनके ही सामने लगी दूसरी बैंच पर मार्क्स के मानसपुत्रों की फ़ौज बैठी थी।

तर्क-वितर्क की कसौटी पर दोनों खेमों से इजरायली मिसाइलें दागी जा रही थी। सभी अपने-अपने विचारधारा के कट्टरपंथी है, इसीलिए किसी भी तर्क पर आमसहमति बन ही नहीं पा रही थी।
लेकिन हर दो मिनट के बाद एक दक्षिणपंथी विचारक सामने बैठे वामी को सिगरेट सहर्ष शेयर कर रहा था !
विचारधारा भलेही कोई भी हो, लेकिन शराब और सिगरेट से किसका कोई बैर ........यही तो ईंधन है, लंबी चर्चाओं का!
इसी शराब में डूबकर ही तो अंधेरी रातों में अपने-अपने विचारधाराओं का गूढ़ अध्यन किया जाता है।

इसी बीच एक वामी विचारक ने कहा "राष्ट्रवाद का ठेका तुमने ही उठा रखा है, हम का अछूत है!........हम भी इसको अपना राष्ट्र मानते है फिर भी हमे हर बात पर राष्ट्रविरोधियों में शामिल क्यों?".......जवाब चाहिए!

इधर दक्षिणपंथी खेमे से तिलमिलाहट भरी आवाज आई!
" तुम्हारा राष्ट्रवाद राजनैतिक राष्ट्रवाद है जो भारत की इस भूमि को सिर्फ भोग और विलास की भूमि मानते है, जबकि हमारा राष्ट्रवाद सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है जो इस भारत की भूमि को कर्मभूमि और जन्मभूमि से बढ़कर जगतजननी का स्वरूप मानते है।

चर्चा अपने चरम पर थी, दोनों और से ब्रहास्त्र दागे जा रहे थे!
इतने में मैंने सिगरेट का एक लम्बा कस मार के सिगरेट को जमीन पर फेका और अपने पैर से कुचल दिया।
मेरी नजरे सामने वाले खेमे के एक बंदे से जा टकराई .......उसके चेहरे के हावभाव से लग रहा था कि ये भी मेरी तरह सितम का सताया हुआ, ज़बरदस्ती बैठा है......विचारधारा से कोई लेना नहीं, साला खुद के विचारों से भी सहमत नहीं......काहे की वामी और दक्षिण सोच!

मुझे देखकर मुस्कुराते हुए उसने बोलना शुरू किया गर्मागर्म बहस के बीच......." बक्क साला! कभी की बकैती कर रहे हो पिछले एक घण्टे से.......इधर साला हमारा आराध्य और ईष्ट का कॉन्सेप्ट क्लियर नहीं हो रहा है।

किसी ने पूछा क्या हुआ बे, हमे बोलो हम कर देते है सब क्लियर!

वो दर्द भरे लहजे में बोला आराध्य और ईष्ट में क्या अंतर है?
दोनों विचारधाराओं के समर्थकों को साँप सूंघ लिया!.......मुख़बधिर, शांत!
वातावरण की गर्मी और तेज हो गई, अब दिमाग रूपी मशीन को सिगरेट रूपी ईंधन की आवश्यकता महसूस हो रही थी। वातावरण में कल-कारखानों के समान सिगरेट का धुँआ फैल रहा था।

जिनते में मैंने अपनी कमान संभाली और बोल " हे पार्थ! तुम्हारा सारथी कृष्ण अभी जिंदा है....हम तुम्हारी समस्या का निदान करेंगे"
तो सुनो मार्क्स के मानसपुत्रों और दक्षिण के दंगल के पहलवानों........... यथार्थ!

आराध्य जिसकी हम आराधना करते है और आराधना कठोर तप और परिश्रम से ही संभव है।
और जिनकी हम आराधना करते है वो अपना आराध्य हो जाता है।

इतना बोलते के बाद, मैंने सबके चेहरों पर एक पैनी नजर दौड़ाई ....…बक्क साला बाउंस हो गया, इनके तो ऊपर से गया!
हमने मोर्चे को पुनः संभालने का जिम्मा लिया......बोला इसको तुम अपने एक उदहारण से समझो।
जैसे किसी रोज तुम्हारे जेब में एक पैसा नहीं होता है और तुमको सिगरेट की तलब उठती है। तब तुम एक आराध्य के खोज में निकल पड़ते हो यानी किसी ऐसे लौंडे को खोजते हो, जो तुम को मुफ्त की सिगरेट पिला सके!

ऐसा लौंडा बड़े मुश्किल से मिलता है।
जिसको अपनी कठोर तपस्या, साधना और परिश्रम से प्रसन्न करना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप वो प्रसन्न होकर तुम्हें सिगरेट रूपी वरदान देता है।
"सही जा रहा है लौंडा........ साला ज्ञानी निकला ये तो!"

दोनों खेमों से वाहवाही लूट लेने के बाद अब मेरे अंदर का दार्शनिक मद में मोहित होकर दानव का रूप धारण कर रहा था।
"भाई तो फिर इष्ट क्या है?" दोनों खेमों से आवाज उठी!
ठहरो जल्दी का काम शैतान का.......पहले दार्शनिक को ईंधन रूपी सिगरेट की आवश्यकता है, इतना बोलते ही मार्लबोरो एडवांस की सिगरेट मेरे अधरों से आ टकराई!
सिगरेट ने जलना शुरू किया.....साथ ही दिमाग रूप मशीन ने भी......फिर वही धुँआ और वही छल्ले!

फोगट की सिगरेट पर इतना मज़ा न लो राजस्थानी....मुद्दे पर आओ.....दोनों खेमों से जोरदार आवाज उठी।

हमने बोला " आराध्य तो स्पष्ट हो गया, अब इष्ट का सुनो"

इष्ट यानी धीरे-धीरे जब हम कठिन तप, साधना और परिश्रम के जरिये आराधना करके आराध्य को प्राप्त करते है, तो वह इष्ट बन जाता है।
यानी जब हम उस लड़के को रोज-रोज सिगरेट पिलाने की मांग करते है तो वह धीरे-धीरे अपना खास हो जाता है....और जब कभी जेब खाली होतो, जरा सी तपस्या और साधना से उसके पास से सिगरेट रुपी वरदान प्राप्त कर सकते है!
आराध्य की प्राप्ति तप से संभव है, जबकि इष्ट की प्राप्ति सत्संग से संभव है......सत नहीं होगा तो भी चलेगा....बस संग होना चाहिए।
इष्ट और आराध्य में उतना ही अंतर है जितना छोटी गोल्डफ्लेक और  क्लासिक माइल्ड में है!
कॉन्सेप्ट क्लियर....... और नहीं हुआ हो............ तो लाइये एक विल्स नेविकट और चाय!

हम तो साहब जालोर से है......ज्ञान तो भरा पड़ा है!!!

✍️©हितेश राजपुरोहित "मुडी"






जोधाणा की जुबानी।

13 मई 2023 शहर जोधाणा (जोधपुर), जेठ की तपती शाम में गर्मी से निजात पाने के लिए जैसे ही छत पर चढ़ा। यक़ीनन मैं काफी हल्का महसूस कर रहा था। इसक...