जालोर का विकास!!
शहर किसी की बपौती नहीं है, यह किसी की जागीर भी नहीं है!
आप सोच रहे होंगे कि आज इसको क्या हो गया?
आप का सीधा शक मेरे और नशे के संबंध पर जा रहा होगा और ये जायज भी भी है, क्योंकि आज शनिवार है!
वैसे तो सभी को पता है कि विद्यार्थी और वो भी अपने घर से बाहर, ऊपर से कॉलेज का स्टूडेंट, और तो और ऊपर से शनिवार......... असली आनंद तो जिंदगी के इस शनिवार का है। ........और ऊपर से ऐसी बकैती ........आपका शक एकदम जायज है!
लेकिन आप का शक सिरे से ख़ारिज करते हुए मुझे बड़ा खेद है क्योंकि परसों से मेरे सेमस्टर के फाइनल एग्जाम स्टार्ट हो रहे है।
खैर मुद्दे पर आते है, एग्जाम तो साला पिछले पंद्रह सालों से देते ही आ रहे है !
तो बात चल रही थी कि शहर किसी की जागीर या वसीयत नहीं होती है, लेकिन जालोर तो मेरी जागीर है .....इससे भी बढ़कर मेरी जान है।
इस शहर (जालोर) को मैंने पल पल जिया है, मैंने अपने आँखों से इसको बड़ा होते देखा है। मेरा और इस शहर का विकास भी साथ-साथ हुआ है, कब बच्चे से बड़े हो गए हम दोनों पता ही नहीं चला!
अब दोनों वयस्क हो गए है.....वो अपने हाल पर और मैं यहाँ किसी दूसरे शहर में!
जब हम बचपन में थे, तब पहनावे और रहन-सहन का कोई ढंग-ढाला नहीं था......अच्छा दिखना और रहना कहां,किसको कुछ मालूम था। दोनों अपने फक्कड़पन और औघड़पन में मस्त थे।
हमारे रहन-सहन और पहनावे में पहला परिवर्तन तब आया जब हमने स्कूल में दाखिला लिया। माँ सुबह अच्छे से नहला कर, बालों में सरसों का तेल लगाकर, एक मोर (पंख) मुकुट चौटी बनाकर, ढेर सारा पाउडर लगाकर ललाट पर काजल की एक बिंदी देती थी।
ऐसा ही पहला परिवर्तन दिखा मेरे जालोर में, जब ये शहर भी उन दिनों आहोर चौराहे से आगे फैला गया था...…...तब नहर के आगे रेलवे स्टेशन के पास पड़े बबूल के मैदान को साफ करके नई-नई कॉलोनियां बसाई गई थी, जिसमें ऋषभ नगर, रूप नगर और दूसरी तरफ बड़ी पोल के बाहर का क्षेत्र यानी पंचायत समिति के आगे के क्षेत्र में सरकारी कॉलोनी(GAD) बन चुकी थी, उससे थोड़े आगे ITI के ढलान में भी कुछ घर बन चुके थे...........हम दोनों का यह परिवर्तन अपने अभिभावकों ने किया था...... इसमें हमारा कोई लेना-देना नहीं था।
इसके बाद दूसरा परिवर्तन आया, जब हम थोड़े जवा हुए। यानी हम नौवीं कक्षा में आये......दुनियादारी की थोड़ी-सी समझ आई। अब खुद नहाकर, सेटवेट का बॉडी स्प्रे लगाकर, बालों में जेल लगाकर, चेहरे पर फेयर एंड हैंडसम लगाकर.........विदेशी शैली के बाल कटवाकर और साइड में कट, वो भी जेड फ़ॉर ज़ेब्रा वाला!
दूसरा परिवर्तन जालोर का भी कुछ ऐसा ही रहा। सबसे पहले मेरे बालों की विदेशी शैली के तर्ज पर इसके बबूलों को काटा गया। यानी नहर के बीच में उगे बबूलों को साफ कर दिया गया और जालोर के सभी प्रमुख चौराहों को चमका दिया गया.......आहोर चौराहे से लगाकर पिपली (हरदेवजोशी) सर्कल तक!.........दोनों चौराहों पर डिस्को फव्वारों के साथ रंग-बिरंगी लाइटिंग भी लगवाई गई!
रेलवे स्टेशन को मीटरगेज से बदलकर ब्रॉडगेज कर दिया गया।
दोनों के परिवर्तन लोगो को दिखने और सताने लगे थे। थोड़े टाइम ही यह परिवर्तन रहा था दोनों की लाइफ में...........तभी तो थोड़े समय बाद चौराहे के फव्वारे और लाइटिंग दोनों खराब हो गये थे!
और मेरा भी यही हाल हो गया....लोगो का मेरा रिलेशनशिप देखा नहीं गया, उनकी आँखों में खटकने लगा.…...स्कूल में साथियों ने प्रिंसिपल से शिकायत कर दी!
प्रिंसिपल ने पहले तो खूब धोया और उसके बाद मेरी ही प्रेमिका से मुझे राखी बंधवा दी..…....रही कसर घर वालों ने सौन्दर्य प्रसाधन पर प्रतिबंध लगाकर पूरी कर दी।
रेलवे की तर्ज पर मेरा भी दाखिला चेंज कर बॉयज स्कूल में कर दिया!
अंतिम परिवर्तन दोनों की जिंदगी में एक बहुत बड़ा बदलाव लेकर आया.......जिंदगी आधुनिकता के आगोश में समा गई!
शहर में हॉस्पिटल चौराहे के आगे, कचहरी परिसर के पास चाइनीज फ़ास्ट फ़ूड की लौरिया लगने लगी। आहोर चौराहे पर PCD कॉफी कैफे खुल गया........अब शहर के प्रेमी जोड़े नेहरू पार्क को छोड़कर इसमें जाने लगे थे.........अब डर खत्म हो गया था....….आसानी से घण्टों बिता सकते थे, अपनी अपनी प्रेयसी के साथ......एकदम महफूज!
नेहरू गार्डन की तो काया ही पलट दी गई थी..........तरह तरह के पेड़, घास और झूले लगाये गये........ रंगाई-पुताई......नाम में भी आंशिक परिवर्तन कर नेहरू बालोद्यान पर दिया गया!
यकायक हुए इस अंतिम परिवर्तन को हम जी नहीं सके क्योंकि इस समय हम आर्थिक रूप से खस्ता हालात में थे!
फिर भी कुछ वक्त गुजारा है इस अंतिम परिवर्तन में, जब हम बारहवी कक्षा में थे। सब अपनी अपनी प्रेमीका के साथ PCD में जाते थे और हम साला अपने मित्र अशोक को लेकर चामुंडा स्वीट होम जाकर कचौरी खाते थे!
और इस अंतिम परिवर्तन में हम विस्थापित की भांति भी थे। क्योंकि बारहवी क्लास पूरी हो चुकी थी, इस कारण कभी जोधपुर तो कभी जयपुर रहना पड़ा था।
यह सब एहसास अबकी बार भोपाल आते वक्त हुआ......आते वक्त जब घर से निकला था तो गली के मोड़ पर अंतिम बार घर के आगे खड़े बादाम के पेड़ को तब तक देखता रहा था, जब तक वो धीरे-धीरे दिखना बंद नहीं हो गया था!
पूरे सफर में यही सोचता रहा कि कब तक आखिर ये बिछड़ना जारी रहेगा......कब जाके ये वनवास खत्म होगा!
मेरे शहर का और मेरा मिजाज भी एकदम अलग है.…...करते मन की है, जैसे परसो मेरे एग्जाम है और हम यहाँ आपसे बाते...…..दूसरी तरफ देश CAA के खिलाफ नारेबाजी कर रहा है और मेरा शहर इन सब से कोसों दूर है!
ये गालियां ये चौबारे यहाँ आना न दुबारा.….…........!!
🙏©हितेश राजपुरोहित "मुडी"