चलो सैर करते है अपने जालोर की!
जाने कब मैं भागते-भागते सुन्देलाव तालाब की पाल पर बड़ा हो गया!.........वो आर्यवीर दल की शाखा के अखाड़े में दाव-पेच सीखना और सुन्देलाव की असीम गहराइयों में गोते लगाना।
समय कितना जल्दी गुजर जाता है, जैसे हाथ की मुट्ठी से फिसलती रेत!
आज अपने शहर से सैकड़ो मील दूर हूँ, लेकिन इसकी मीठी यादे ही काफी है.....मेरे ज़ेहन में एक छोटा-सा जालोर बनाने के लिए।
मेरे शहर का सुन्देलाव किसी बनारस के घाट से कम नहीं है। मैं जब भी दुःखी या उदास होता था, तो अकेला शाम को घंटों तालाब की पाल पर बैठ कर बतियाता था अपने मन की बात....मेरे सुन्देलाव से!
वो सिरे मंदिर की पहाड़ियों के पीछे डूबता नारंगी सूर्य, वो हनुमान मंदिर से आती झालरों व शंखों की मनमोहक ध्वनि, वो दीपों की रोशनी से जगमगाता कबीर आश्रम और गायत्री मंदिर से आती आवाज "धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो"।
उस डूबते नारंगी सूर्य को देखना और फिर सुन्देलाव की सतह पर उमड़ रही लहरों को घंटो निहारना......वो भी क्या दिन थे.....पूरा बनारस का गंगा घाट था, मेरा सुन्देलाव!
बचपन की सबसे सुखद स्मृति .......जब माँ की अंगुली पकड़कर बाजार जाता था। खासकर तब, जब दीपावली नजदीक होती थी........बाजार में जब वीरमदेव चौक पर माँ मिट्टी के दिए खरीदती थी। चारों तरफ लोगों की भीड़, आवाज ही आवाज...... उस वक्त मैं माँ की अंगुली पकड़े रखता था कि कही खो न जाऊ इस भीड़ में!......…..इसी बीच वीरमदेव चौक में स्थित गैबनशाह गाजी की दरगाह से अजान की ध्वनि सुनाई देना........ इसी सदर बाजार में ही तो रची-बसी है मेरी रूह!
थोड़ा बड़ा हुआ तो वही वीरमदेव चौक, वही अजान और उसके साथ ही काले हिजाब में उसका मुझसे नजरे मिलाना, वो हजारों चेहरों के बीच में मुझसे नैन मिलाना......…वो पाक मुहब्बत, वो दीदार .......मेरी रूह है जालोर!
वो स्कूल से आते वक्त बड़ी पोल के अंदर से साईकिल के पैंडल मारना बंद करना और पंचायत समिति तक साईकिल का अपने आप तेज रफ्तार से दौड़ना...........मेरी जिंदगी भी कुछ ऐसे ही तेज भागती थी, इस शहर में!
वो नेहरू पार्क के आगे साईकिल पर बैठकर उसका घंटो इंतज़ार, वो एक झलक, एक दीदार................जब वो अपने पापा के मोटरसाइकिल के पीछे बैठकर जाती हुई हल्की-सी मुस्कुराहट देती थी.......उस मुस्कुराहट के चक्कर में न जाने कितने बार बाबूजी के हाथ से पीटे भी गये है क्योंकि उनके ऑफिस से आने का समय और मार्ग भी यही था!
वो एक्स्ट्रा क्लास से बंक मारकर, खोनेड़ी (शास्त्रीनगर) की गलियों में बार-बार चक्कर लगाना.............एक उम्मीद के सहारे की अबकी बार तो बाहर आकर चेहरा दिखायेगी!
रोज-रोज के चक्कर में, एक दिन मुहल्लेवासियों द्वारा शिकायत लेकर स्कूल आना और मेरा स्कूल के पीछे वाले गेट से, नेहर के अंदर से फुर्ररर हो जाना....…........ये शहर है जबरो जालोर!
वो लालाजी के समोसे, वो धाकड़ की कचौरी और लूबजी का पान........... यही है मेरे जालोर की आन, बान और शान!
वो नहर वाले मोमोजी मंदिर के आगे से कभी-कभार बीड़ी उठाना..... कौन भूल सकता है?
बचपन में न जाने कितने ही प्रेमी जोड़ों के लव लेटर आदान-प्रदान किये है इस प्रेमी कबूतर ने......दस रुपये के चक्कर में साईकिल से जालोर के हर एरिया में जा चुका है......यह प्रेमी पोस्टमैन पार्सल देने!
शाम को स्टेडियम से थका, प्यासा सीधा पहुँच जाता था आहोर चौराहे पर कालुबा की प्याऊ.....अपनी प्यास बुझाने।
अब कालुबा तो नहीं रहे, लेकिन मुझे जब भी समय मिलता है तब लंकेश्वर हनुमानजी की आरती के बाद कालुबा की प्याऊ पर जाता हूं....….........अपनी प्यास बुझाने!
सच में मेरे खून के हर एक कतरे में बसता है मेरा शहर जालोर..........जग से निराला मेरा जालोर!
✍️©हितेश राजपुरोहित "मुडी"
बहुत सुंदर वर्णन ��
ReplyDeleteअब तो हमे भी जालोर से प्रेम हो गया��
ये तो आपके पढ़ने का नजरिया है......😊
Deleteशुक्रिया जी
अतिसुन्दर
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteम्हारो जबरो जालौर, जन्नत हमीअस्तो हमीअस्तो
ReplyDeleteआबाद रहो हितसा
शुक्रिया मित्र😊😊
Deleteबहुत ही अच्छा भाई।������������
ReplyDeleteबहुत अच्छे दिन थे वो....��������
हाँ, भाई😊
Deleteगज़ब...
ReplyDeleteशुक्रिया जी
Deleteअदबुद ओर अतिसुंदर वर्णन । जय जालोर
ReplyDeleteशुक्रिया जी
Deleteकेशरिया स्वाद नही आया हुक्म ?���� बाकी बहुत सुंदर अतीत के चलचित्र
ReplyDeleteवोतो रेलवे स्टेशन पर आएगा
Deleteअति सुन्दर अतीत के अच्छे लम्हो का अद्वितीय जानकारी के साथ अच्छा लेखन 😍🙏😎 साहब जय जालंधर जय जालोर
ReplyDeleteNarayan Dewasi
DeleteJay jalore
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