;; छोड़ बाबुल का आँगन!
ये कोई कहानी नहीं है और नहीं कोई कविता .....ये मेरे मन में उपजा एक विचार हो सकता है या फिर नज़रिया!
ये नज़रिया है ग्रामीण जज्बातों का...................
;; छोड़ बाबुल का आँगन!
ये कोई कहानी नहीं है और नहीं कोई कविता .....ये मेरे मन में उपजा एक विचार हो सकता है या फिर नज़रिया!
ये नज़रिया है ग्रामीण जज्बातों का...................
वैसे मैं एक गँवार और देहाती इंसान हूँ और मुझे इस पर गर्व है, क्योंकि मेरा जन्म ग्रामीण भूमि यानी "मुडी" गाँव मे हुआ!
मेरे बचपन की शुरुआत भी बाकी गाँव वाले बच्चों की तरह यानी मिट्टी खाने से शुरू हुई।
मेरे बचपन की शुरुआत भी बाकी गाँव वाले बच्चों की तरह यानी मिट्टी खाने से शुरू हुई।
तत्पश्चात छः वर्ष की आयु में, मैं अपनी दादी(गाँव) को छोड़ के शहर "जालोर"(माँ) में आ गया। वैसे मैंने जालोर को कभी शहर माना ही नहीं है क्योंकि ये हर मापदंड पर एक कस्बा ही घोषित होगा और सबसे बड़ी बात ये है कि यहाँ शहरों वाला कल्चर नहीं, गाँव वाला भाईचारा है!
भले ही शहर में आये हुए आज 14 साल हो गए, लेकिन आज भी खून में देहातीपन मौजूद है और ताउम्र जारी रहेगा।
मेरे गाँव मे मेरे ही हमउम्र की लड़की रहती थी, जिसका नाम था अंजू। अंजू बड़ी सुशील, शिष्ट और आज्ञाकारी थी। बचपन मे वो हमारे साथ काफी खेलती थी।
गाँव को छोड़ने के बाद भी, जब कभी मैं गाँव जाता तो अंजू से जरूर मिलता। उसने अपनी पढ़ाई आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद छोड़ दी थी।
छः महीने बाद जब मैं जयपुर से घर(जालोर) आया। तो पिताजी ने एक दिन मुझसे कहा कि "बेटा वो गाँव मे कल रणजीत के बेटी की शादी है तो तुम चले जाना, मेरे तो कल जोधपुर जाना है ऑफिस के काम से!"
मैंने भी बिना किसी देरी के हाँ बोल दिया, वैसे भी अपने तो छुट्टियां चल रही थी।
मैंने अपनी माँ से जाकर पूछा, माँ रणजीत काकोसा के कौनसी बेटी की शादी है?
"अंजू की " माँ ने बोला
मैं एक क्षण के लिए स्तब्ध हो गया, सोचा कि यार अंजू तो मेरे उम्र कि है, अभी तो छोटी है!
फिर सोचा कि मैं दो साल से गाँव नहीं गया हूँ, इन दो साल में अंजू बड़ी हो गई होगी और वैसे भी लड़कियां तो........बड़ी भी जल्दी हो जाती है।
मैंने भी बिना किसी देरी के हाँ बोल दिया, वैसे भी अपने तो छुट्टियां चल रही थी।
मैंने अपनी माँ से जाकर पूछा, माँ रणजीत काकोसा के कौनसी बेटी की शादी है?
"अंजू की " माँ ने बोला
मैं एक क्षण के लिए स्तब्ध हो गया, सोचा कि यार अंजू तो मेरे उम्र कि है, अभी तो छोटी है!
फिर सोचा कि मैं दो साल से गाँव नहीं गया हूँ, इन दो साल में अंजू बड़ी हो गई होगी और वैसे भी लड़कियां तो........बड़ी भी जल्दी हो जाती है।
अगले दिन तैयार हो कर पहुँच गया अपने गाँव.......मुडी!
जैसे ही अंजू की गली में प्रवेश किया, चारों तरफ लोगों की चहल-पहल थी। सबके माथों(सिर) पर साफे, मुझे अपने राजस्थानी होने का एहसास और गर्व महसूस करवा रहे थे।
जैसे ही मैंने अंजू के घर मे कदम रखा, तो घर के बाहर के आँगन में 100-150 पलंग लगे हुए थे, बारातियों के लिए और वैसे भी गाँवों में घर के आँगन किसी फुटबॉल ग्राउंड से कम बड़े नहीं होते!
मैं अंजू के लिए कपड़े लेकर गया था....जैसा की रिवाज होता हैं।
जैसे ही मैं कपड़े देने अंदर गया। तो मेरी दृष्टि अंजू पर पड़ी, अंजू तैयार हो रही थी। वो अब काफी बड़ी हो चुकी थी। वो काफी रूपवान और सुशोभित लग रही थी। शहरी लड़कियों की भांति उसने अपने चेहरे पर फेशियल नहीं करवाया था। आँखों मे काजल और अधरों पर निश्छल हँसी ....अद्भुत!
जैसे ही उसने मुझे देखा, तो उसने एक शर्मीली-सी मुस्कान दी। और फिर मैं भी कपड़े देकर बाहर आँगन में आ गया।
बारात घर कि देहरी पर पहुँच चुकी थी। शहरी संस्कृति के विपरीत आज भी छोटे गाँवों में शादी बहेद साधारण तरीके से, विलासिता से कोसों दूर होती हैं।
न कोई डीजे और न ही कोई बैंड, लेकिन महिलाओं के द्वारा गाये जाने वाले शादी के गीत मेरे मन को बहेद मनहोरी लग रहे थे।
बारात का स्वागत किया गया और बारातियों की ख़िदमत।
वर और वधू को मंडप में लाया गया और मांगलिक फेरे शुरू हुए.....इसी एक क्षण गीत भी शुरू किया गया, महिलाओं द्वारा
"पहलो फेरो लाड़ी, दादा, ताऊजी री प्यारी।
दूजो तो फेरो लाड़ी, पापा, चाचीजी री प्यारी।
तीसरा तो फेरो लाड़ी, भैया, मामाजी री प्यारी।
चौथा तो फेरो लाड़ी, जीजा, फूफाजी री प्यारी।
पांचवो तो फेरा लाड़ी, नानाजी री प्यारी।
छठवें तो फेरा बन्नी, बन्ना री प्यारी।
सातवों तो फेरा, बन्नी हुई है पराई।"
"पहलो फेरो लाड़ी, दादा, ताऊजी री प्यारी।
दूजो तो फेरो लाड़ी, पापा, चाचीजी री प्यारी।
तीसरा तो फेरो लाड़ी, भैया, मामाजी री प्यारी।
चौथा तो फेरो लाड़ी, जीजा, फूफाजी री प्यारी।
पांचवो तो फेरा लाड़ी, नानाजी री प्यारी।
छठवें तो फेरा बन्नी, बन्ना री प्यारी।
सातवों तो फेरा, बन्नी हुई है पराई।"
जैसे ही फेरे समाप्त हुए और वधू(अंजू) मंपड से नीचे उतरी.....रोने लगी, उसके आँसू देख, मेरा मन द्रवित हो उठा!
लेकिन उसी क्षण, मुझे बुला दिया गया.....मैं चला गया, बारातियों को भोजन करवाने।
लेकिन उसी क्षण, मुझे बुला दिया गया.....मैं चला गया, बारातियों को भोजन करवाने।
अगले दिन शाम को सूर्यास्त के समय बिदाई का समय आया..
अंजू अपने बाबुल के आँगन से विदा होते क्षण बहुत ही ज्यादा आँसू बहा रही थी और अपने आँगन को छोड़े जाने की वेदना उसके आवाज में भी स्पष्ट जलक रही थी!
अंजू अपने बाबुल के आँगन से विदा होते क्षण बहुत ही ज्यादा आँसू बहा रही थी और अपने आँगन को छोड़े जाने की वेदना उसके आवाज में भी स्पष्ट जलक रही थी!
उसको देखकर मैं स्वयं भी अपने आँसुओं को रोक नहीं पाया।
मैं वहाँ से थोड़ी दूर शिवजी के मंदिर की ओर चल दिया। वहाँ एकांत में आँखें बंद कर बैठ गया। मेरे मानसपटल पर अंजू की बचपन से लगाकर आजतक की यादों का चित्र बार-बार सामने आ रहा था।
अंजू की माँ का देहांत, उसके(अंजू) जन्म के दो साल बाद हो गया था! उसको हालातों ने सीखा दिया था, घर के सारे काम और रिश्तों को निभाना।
अब वो बहुत समझदार हो गई थी, पूरा घर वो संभालती थी। पिताजी ने घर की चाबियां भी उसको थमा दी थी। अब वो घर के काम निपटाने के बाद, पिताजी के साथ खेतों के काम भी करती थी। पिता की हर छोटी-छोटी जरूरतों को वो पूरा करती थी। पिता ने तो पैसों का सारा हिसाब भी उसको थमा दिया था।
घर का इतना बड़ा आँगन, आज उसकी बिदाई के बाद रिक्तता से भरा पड़ा था। उसकी गैरमौजूदगी से अब आँगन में उपस्थित पेड़ भी अपनी शाखाएं झुकाएं निश्चल खड़े थे......जो शायद मूक होकर व्यथा को उजागर कर रहे थे। अब शायद इनके जीवन में कभी सावन लौटकर नहीं आयेगा!
जिस आँगन में वो चिड़िया-सी फुदकती थी......जहाँ उनसे अपने जिंदगी के सुनहरे दिन गुजारे।
कैसे वो अपने आप को नए माहौल और लोगों(अपरिचित) के बीच ढाल पाएगी!
साहब एक बात तो बोलनी पड़ेगा.....बिटिया होना आसान नहीं!
अपना घर, अपना परिवार छोड़कर जाना.....शायद इतनी हिम्मत बेटों में नहीं होती।
वाकई बिटिया के हिम्मत को सलाम!
✍️© हितेश राजपुरोहित "मुडी"
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