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Saturday, November 23, 2019

रेलवे स्टेशन ....... एक अनकही दास्ता!


              
                         रेलवे स्टेशन
                    (एक अनकही दास्ता...)

"तुम कभ सुधरोगें" फोन के उस पार से उकड़ूँ बैठे मनोज के कानों में वो आवाज हर बार की तरह ही सामान्य लग रही थी।
"जब जमाना सुधर जायेगा सिर्फ हमने ही सुधरने का ठेका थोड़े न ले रखा है" मनोज ने अपने कान में बाइक की चाबी से खुजाते हुए कहा।


दो मिनट की खामोशी के बाद फोन के उस पर से रुदन गले से रश्मि बोली " ऐसे ही रहा तो एक दिन में बहुत दूर चली जाऊंगी"।
"Ok bye अपना ख़्याल रखना" मनोज ने कहते हुए फोन काट दिया।


मनोज के लिए तो यह हररोज़ का सिलसिला था, हर दिन किसी न किसी बात पर कहासुनी पिछले एक साल से अनवरत जारी थी।
लेकिन रश्मि मनोज को लेकर बहुत ज्यादा ही चिंतित थी।
इन दोनों का ये रिश्ता दसवीं कक्षा की एक्स्ट्रा क्लास से ही शुरू हुआ था जो अभी BA फाइनल ईयर तक जारी है।


मनोज फोन रखने के बाद अचानक न चाहते हुए भी पता नही आज क्यों रोने लगा?
मनोज ने अपनी जेब से गोल्डफ्लेक की सिगरेट निकाली और जलाते हुए एक गहरी सोच में पड़ गया।
कस लगाते हुए धुँए में वो अपनी पहली नई-नई मुलाकातों का ख़ुशनुमा आशियाना बना रहा था।
सिगरेट कब पूरी हुई पता ही नही चला, वो ख़ामोशी से उस धुँए में समा गया था।


अचानक से फोन की रिंग बजी, फोन घर से था मनोज बाइक स्टार्ट करके सीधे घर गया और बिना खाना खाये अपने रूम में चला गया। घंटो तक वो एक गहरी सोच में मशगूल हो गया।
अचानक से उसने घड़ी देखी चार बजे चुके थे, हररोज़ चार बजे रश्मि का मैसेज आना दिनचर्या का हिस्सा हो गया था। लेकिन उस दिन चार बजकर पंद्रह मिनट हो चुकी थी, लेकिन मैसेज नही आया।
मनोज ने सोचा कि गुस्सा होगी, मैं ही कर देता हूं लेकिन फिर उसने अपना मूड चेंज कर दिया और मैसेज नही किया।


घड़ी में पाँच बजे चुके थे और पाँच बजे V S महावीर स्कूल के खेल मैदान में क्रिकेट खेलने जाना मनोज के दिनचर्या का सबसे खुशनुमा और प्रमुख हिस्सा था।
कितना ही अर्जेंट काम हो फिर भी हर काम को टालकर वहाँ चला ही जाता था।
मनोज क्रिकेट का एक अच्छा खिलाड़ी था और हर मैच में दो बार बैटिंग करना उसका अपना ही टैलेंट था।


आज ग्राउंड में जाते वक्त उसने अपने जेब मे गोल्डफ्लेक का पूरा पैकेट डाल दिया और ग्राउंड में जाकर उसने आज क्रिकेट नही खेला, पेड़ के नीचे बैठकर अपनी दुनिया मे डूबा रहा, पता ही नही चला कि कब सिगरेट का पूरा पैकेट खाली हो गया और सारे बच्चे घर चले गये।


मनोज भी घर की ओर रवाना हो गया और जाते ही सो गया।
अगली सुबह वह अपने परिवार सहित अपने गाँव चला गया कुछ दिनों के लिए, गाँव मे बिताए एक हफ्ते में उसने एक बार भी रश्मि को फोन नही किया और ना ही रश्मि ने मनोज को फोन किया।
कुछ दिनों के बाद शाम को वो अपने शहर जालोर लौट गया।आज वो बहुत खुश था सोच रहा था कि कल सुबह रश्मि को मिलकर बोल दूंगा की आज के बाद जैसा तुम कहोगी वैसा ही मैं करूँगा।


रात के आठ बजे चुके थे अचानक से मनोज के घर के बाहर से किसी के जोर-जोर से चिल्लाने की आवाज आई।
मनोज भागकर बाहर गया तो देखा कि महिपाल खड़ा था।
मनोज ने महिपाल से पूछा "क्यों रे इतना काहे को चिल्ला रहा है।"
महिपाल ने हाँफते हुए कहा "रश्मि और उसका पूरा परिवार सामान सहित रेलवे स्टेशन पर खड़ा है उसके पाप ने अपना ट्रांसफर चार दिन पहले खुद के शहर झारखंड करवा दिया है वो जालोर छोड़कर जा रहे है"।

मनोज के पैरों तले जमीन खिसक गई!
"ट्रैन का समय साढ़े आठ बजे है ट्रैन आने में 10 मिनट बाकी है" महिपाल ने कहा।


मनोज बिना जूतों के नंगे पांव शहर की सड़कों पर बेतरतीब भागने लगा रेलवे स्टेशन की तरफ, वो रश्मि से मिलना चाहता था उसको बोलना चाहता था कि आज से मैं बदल गया हूं.....उसको अपनी गलती का एहसास हो रहा था। 


जैसे ही मनोज रेलवे स्टेशन पहुँचा उसे सिर्फ चलती ट्रेन में रश्मि का अलविदा रूपी लहराता हुआ हाथ नजर आया।
अब मनोज के पास यादो के रूप में सिर्फ उस ट्रैन का जाना और रश्मि का लहराता हुआ हाथ था।
इस घटना को सात साल बीत गए है, परंतु मनोज हररोज़ रात को रेलवे स्टेशन जाता है सिर्फ उस लहराते हुए हाथ को देखने...........और उस जाती हुई रश्मि को रोकने!
वो हररोज़ स्वयं को कोसता है कि कास उस रात को वो पाँच मिनट जल्दी आया होता तो।


इस तरह की घटनाएं जिंदगी में कुछ ऐसा दे जाती है कि जिसके सहारे रोज मरते-मरते भी जीना पड़ता है जैसे मनोज पिछले सात साल से मरमर कर जी रहा है।
                                   
  ✍️©हितेश राजपुरोहित "मुडी"

Tuesday, November 19, 2019

चलो सैर करते है अपने जालोर की!


              चलो सैर करते है अपने जालोर की!

जाने कब मैं भागते-भागते सुन्देलाव तालाब की पाल पर बड़ा हो गया!.........वो आर्यवीर दल की शाखा के अखाड़े में दाव-पेच सीखना और सुन्देलाव की असीम गहराइयों में गोते लगाना।
समय कितना जल्दी गुजर जाता है, जैसे हाथ की मुट्ठी से फिसलती रेत!
आज अपने शहर से सैकड़ो मील दूर हूँ, लेकिन इसकी मीठी यादे ही काफी है.....मेरे ज़ेहन में एक छोटा-सा जालोर बनाने के लिए।

मेरे शहर का सुन्देलाव किसी बनारस के घाट से कम नहीं है। मैं जब भी दुःखी या उदास होता था, तो अकेला शाम को घंटों तालाब की पाल पर बैठ कर बतियाता था अपने मन की बात....मेरे सुन्देलाव से!

वो सिरे मंदिर की पहाड़ियों के पीछे डूबता नारंगी सूर्य, वो हनुमान मंदिर से आती झालरों व शंखों की मनमोहक ध्वनि, वो दीपों की रोशनी से जगमगाता कबीर आश्रम और गायत्री मंदिर से आती आवाज "धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो"।    

उस डूबते नारंगी सूर्य को देखना और फिर सुन्देलाव की सतह पर उमड़ रही लहरों को घंटो निहारना......वो भी क्या दिन थे.....पूरा बनारस का गंगा घाट था, मेरा सुन्देलाव!

बचपन की सबसे सुखद स्मृति .......जब माँ की अंगुली पकड़कर बाजार जाता था। खासकर तब, जब दीपावली नजदीक होती थी........बाजार में जब वीरमदेव चौक पर माँ मिट्टी के दिए खरीदती थी। चारों तरफ लोगों की भीड़, आवाज ही आवाज...... उस वक्त मैं माँ की अंगुली पकड़े रखता था कि कही खो न जाऊ इस भीड़ में!......…..इसी बीच वीरमदेव चौक में स्थित गैबनशाह गाजी की दरगाह से अजान की ध्वनि सुनाई देना........ इसी सदर बाजार में ही तो रची-बसी है मेरी रूह!

थोड़ा बड़ा हुआ तो वही वीरमदेव चौक, वही अजान और उसके साथ ही काले हिजाब में उसका मुझसे नजरे मिलाना, वो हजारों चेहरों के बीच में मुझसे नैन मिलाना......…वो पाक मुहब्बत, वो दीदार .......मेरी रूह है जालोर!

वो स्कूल से आते वक्त बड़ी पोल के अंदर से साईकिल के पैंडल मारना बंद करना और पंचायत समिति तक साईकिल का अपने आप तेज रफ्तार से दौड़ना...........मेरी जिंदगी भी कुछ ऐसे ही तेज भागती थी, इस शहर में!

वो नेहरू पार्क के आगे साईकिल पर बैठकर उसका घंटो इंतज़ार, वो एक झलक, एक दीदार................जब वो अपने पापा के मोटरसाइकिल के पीछे बैठकर जाती हुई हल्की-सी मुस्कुराहट देती थी.......उस मुस्कुराहट के चक्कर में न जाने कितने बार बाबूजी के हाथ से पीटे भी गये है क्योंकि उनके ऑफिस से आने का समय और मार्ग भी यही था!

वो एक्स्ट्रा क्लास से बंक मारकर, खोनेड़ी (शास्त्रीनगर) की गलियों में बार-बार चक्कर लगाना.............एक उम्मीद के सहारे की अबकी बार तो बाहर आकर चेहरा दिखायेगी!
रोज-रोज के चक्कर में, एक दिन मुहल्लेवासियों द्वारा शिकायत लेकर स्कूल आना और मेरा स्कूल के पीछे वाले गेट से, नेहर के अंदर से फुर्ररर हो जाना....…........ये शहर है जबरो जालोर!
वो लालाजी के समोसे, वो धाकड़ की कचौरी और लूबजी का पान........... यही है मेरे जालोर की आन, बान और शान!
वो नहर वाले मोमोजी मंदिर के आगे से कभी-कभार बीड़ी उठाना..... कौन भूल सकता है?

बचपन में न जाने कितने ही प्रेमी जोड़ों के लव लेटर आदान-प्रदान किये है इस प्रेमी कबूतर ने......दस रुपये के चक्कर में साईकिल से जालोर के हर एरिया में जा चुका है......यह प्रेमी पोस्टमैन पार्सल देने!

शाम को स्टेडियम से थका, प्यासा सीधा पहुँच जाता था आहोर चौराहे पर कालुबा की प्याऊ.....अपनी प्यास बुझाने।
अब कालुबा तो नहीं रहे, लेकिन मुझे जब भी समय मिलता है तब लंकेश्वर हनुमानजी की आरती के बाद कालुबा की प्याऊ पर जाता हूं....….........अपनी प्यास बुझाने!

सच में मेरे खून के हर एक कतरे में बसता है मेरा शहर जालोर..........जग से निराला मेरा जालोर!

✍️©हितेश राजपुरोहित "मुडी"

Thursday, November 7, 2019

गाँव का आँगन


   
   
      गाँव का आँगन 

   बहुत याद आता है वह आँगन
   बचपन का खेल मैदान था वह आँगन
   सर्द दिनों में दिनभर खटिया का स्थान था वो आँगन

  –
  ग्रीष्म रातो में लोककथाओ का मंच था वो आँगन
  दादी के मसाले बनाने का स्थान था वो आँगन
  माँ तुलसी का पावन प्रमाण था वह आँगन
  नीम का निवास था वह आँगन

  माँ की सहेलियों का जमघट था वह आँगन
  थके हुए का विश्राम था वह आँगन
  पड़ोस के भोजन की खुशबूं देता था वह आँगन
  परिवार के आनंद का कारण था वो आँगन

  –
  शहरी फ्लैट वाली ज़िन्दगी में
  याद आता है वो आँगन

 ✍️©हितेश राजपुरोहित "मुडी"

जोधाणा की जुबानी।

13 मई 2023 शहर जोधाणा (जोधपुर), जेठ की तपती शाम में गर्मी से निजात पाने के लिए जैसे ही छत पर चढ़ा। यक़ीनन मैं काफी हल्का महसूस कर रहा था। इसक...