हे! इंसान स्वार्थ के चक्कर तुम
भूल गए सच्ची आजादी के मायने,
मृगतृष्णा के भवर में तुम ढूंढने लगे आजादी,
तख्तोताज में तुमकों दिखने लगी आजादी,
और अंत में कागज़ के चंद टुकड़ो में मान बैठे आजादी!
हर सांझ के बाद भोर की एक किरण निकलती है......
हो देर भले लेकिन आजादी इंसान को ढूंढ लेती है!
अब सांझ में जब छत के मुंडरे से झांकता हूँ, दूर ,बहुत दूर
दिखता है नारंगी सूर्य, जो बढ़ाता है मेरे मुख का माधुर्य!
सहसा तेज पवनों का वेग छू लेता है मेरे अधरों को!
मस्तक को छूती ठंडी बाहर मदमस्त कर देती है, मेरे अंतस्थ को!
जब लेता हूँ एक गहरी, बहुत गहरी सांस.....तो पाता हूँ सच्ची वाली आजादी के मायने!
मन करता है कि मुंडेरे से बन पंक्षी, उड़ चलू कई....
दूर बहुत दूर, बंधनमुक्त, अपनी छाया से मुक्त!
जहां इंसानी धमाल और दुनियावी बवाल न हो!
कहते है जहां इस संसार से नाता टूट जाता है वहां
जी, हां ....मोक्षमार्ग, मोक्षधाम.......कब्रिस्तान.
हां बाबा वही श्मशान घाट, जहाँ मेरे पुरखे यथार्थ वाली आजादी में मदमस्त हो गए!
✍️©हितेश राजपुरोहित "मुडी"