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Thursday, February 20, 2020

भांग - बम लेहरी


हमारे समाज में होली रंगों का त्योहार है और होली इन रंगों में  समाई अंनत खुशियों का त्योहार हैं। वही दूसरी तरफ ये त्योहार है लड़ाई-झगड़ो, गालियों और मसखरियो का। इन सब से कोसों दूर ये त्योहार वास्तविकता में भांग के नशे का....,जी हाँ भांग के नशे का!

नोट- इस सारे लेखन का यथार्थ से कोई लेनादेना नहीं है, ये सिर्फ मेरी काल्पनिक नज़रों से लिखा गया है!!

ये घटना है पिछले साल होली की...............
होली की सुबह मैं और मेरे बड़े भाई गाड़ी लेकर घूमने निकले, जितने में रेलवे स्टेशन के पास मनोज, अशोक और भगेश मिल गये। इनको भी साथ लेकर हम आगे बड़े!
चारों तरफ लोग एक दूसरे को बड़े प्यार से गुलाल लगा रहे थे और हवा में उड़ा रहे थे। जहाँ नजर पड़े वहाँ धरती की ऊपरी परत सतरंगी नजर आ रही थी। सारा शहर मानों सड़कों पर होली खेलने के लिए निकल पड़ा हो।

आहोर चौराहे पर पहुँचते ही देखा....................
पूरे शहर का जमावड़ा यही लगा हुआ था। हमने भी अपनी बाइक साइड में लगा दी। क्योंकि सामने हमारे अजीज मित्रों की टोली थी यानी "जुप्पो की गैंग"
आते ही गले लगकर हैप्पी होली का दौर शुरू हुआ। इस बीच सुभाष और हितेश ने जूस की बोतले थमा दी हमारे हाथ में, मैंने पूछा ये क्या है?
बदले में हितेश ने कहा "ये जलजीरे का जूस है, पिलो तुम।
हमने भी सोचा नया दिन है और हितेश भाई पिला रहे है, तो पी ही लेते हैं। वैसे भी आड़े दिन एक रूपिया तक नहीं निकालते!
सभी ने एक ही श्वास में पूरी बोतल घटक ली.....जूस की।

उसके बाद हम भी जुप्पो वाली गैंग के साथ निकल पड़े, शहर की होली देखने। बाइको का मजमा लग चुका था। परिवेश में गाड़ियों के हॉर्न के कारण कोलाहल मच चुका था।

पता नहीं  क्यों अचानक मन बेचैन होने लगा............
मेरे द्वारा अपने मित्रों को दरख्वास्त करने पर हम पुनः आहोर चौराहे पर स्थित लंकेश्वर हनुमानजी के मंदिर के वहां चल दिये। जितने में सुभाष और हितेश भी पीछे-पीछे आ गये। आते ही बोले भाई क्या हुआ?
मनोज ने बोला इसका(मेरा) मन बेचैन हो रहा है।

जोरदार हँसी की आवाज.....रावण की तरह "हहहह हा हा हा"

"भांग पिणी होरी है लेहरो लेणी दोरी है!" हितेश ने बोला

उसके बोलते ही सबकुछ समझ में आ गया.......जो जूस समझ कर पिया था, वो असल में भांग थी.....अरे बूड़ो हमे!
"जिंदगी में पहली बार भांग पी.....अब क्या होगा!"

अरे एनोजय करो.......हैप्पी होली बोलकर हितेश मुझे गले लगाने लगा।

हम सभी आहोर चौराहे के पथिक विश्राम गृह के सेड के नीचे बैठे थे। मेरे बगल में बैठे किरण से मैंने पूछा "भाई मेरी आँखें बंद हो रही हैं।"
किरण की नजरें सड़क पर थी, वो अपने धुन में मस्त था।
मैंने जोर से बोला लेकिन उसने इस बार बिना गर्दन मोड़े सिर्फ अपनी कातिलाना निगाहों को तिरछी कर मुझे एकटक देखा और फिर पुनः अपनी धुन में लौट गया।
अबकी बार मैंने किरण को झकझोरा, तो उसने एक गहरी श्वास अंदर खीची और फिर बाहर छोड़ी.......फिर बिना कुछ सोचे-समझे वो लेट गया जमीन पर........वो भी मुख्य चौराहे पर! जबकि आड़े दिन वहाँ खड़े होने पर भी संकोच रखता ......लेकिन आज तो ये धरती मेरे माँ है!!

अचानक से मेरे कानों में क्रिकेट कमेंटेटर आकाश चौपड़ा की आवाज गूँज उठी  "और यहाँ मेलबर्न की उछाल भरी पिचों पर भारत का पहला विकेट गिरता हुआ......किरण बिना खाता खोले.... पवेलियन की ओर!"

अब धीरे-धीरे बैचनी दूर हो रही थी...............
चारों तरफ वातावरण में एक अलग ही विहंगम दृश्य दिखाई दे रहा था, माहौल खुशनुमा लग रहा था.......अधरों पर मुस्कान हावी हो रही थी। थोड़ी देर पहले वातावरण में उपस्थित कोलाहल अब मच्छरों की भिनभिनाहट में बदल चुकी थी.....पास से बोल रहे अशोक की आवाज भी मानो लेटा फाटक से आ रही हो। अब शरीर और आत्मा का संबंध विच्छेद हो चुका था, दोनों अपने में स्वछंद थे......हाथ मानो किसी ने जबरदस्ती कंधों पर टांग दिए हो, माथे में जम-जम की आवाज आ रही थी!

इस बीच महिपाल को बुलाया तो सीधा गाने लगा "होली रु मोमेरु आयो हितेश जी रे आयो रे!"
मैंने दोनों हाथ जोड़कर महिपाल से निवेदन किया कि हुकुम आप ने खम्मा घणी .....आप चुप ही रहो बन्ना!!

इतने मैं अशोक भाई भी तरंग में बोल बैठे की मुझे प्रेम हो गया है मेरी जानू से........
इस बात को सिरे से खारिज करते हुए बड़े भाई भी टशन में बोल बैठे " जिसको तुम प्रेम कहते हो वह मात्र आकर्षण की अभिव्यक्ति है। इस आकर्षण में सात्विक भावना हो ही नहीं सकती हैं, तामसिक वासना ही हो सकती है। वात्सल्य, श्रद्धा नहीं हो सकते है। सिर्फ लज्जा ही हो सकती है, दुस्साहस ही हो सकता है। तो बालात्कार तक हिंसा का भाव भी हो सकता है!
आज बड़े भैया ने वर्तमान पीढ़ी के ढोंगी प्रेम को बीच चौराहे पर नंगा कर दिया था...........अद्भुत, अद्वितीय, अकल्पनीय और अविश्वसनीय..... बेहतरीन! सदन पाँच मिनट तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।

भगेश को मैंने बोला भाई तुम नाश्ता ले आओ, हम सभी स्टेडियम में जा रहे है..................स्टेडियम में दाखिल होते ही भांग अपने चरम पर थी! स्टेडियम में हम सभी वटवृक्ष के नीचे सप्तऋषियों की तरह विराजमान हो गये।

बैठे-बैठे मुझे मसखरी सूझी ..............
मैंने सभी दोस्तों से बोला...... देखो भाईयों हितेश में महादेव दिखाई दे रहे है......इसकी आँखों मे रौद्र रूप दिखाई दे रहा है और इसके बड़े-बड़े बाल महादेव के जटाओं के समान लहरा रहे है।

महिपाल और अशोक " बिल्कुल हूबहू भाई..... जय हो महाकाल की और पाँव पड़ गए, हितेश के।"

अब तो महाकाल तांडव करेगा ही, रौद्र रूप धारण करना ही होगा  "मैंने बोला"
सभी ने बात का समर्थन किया..........
हाथ मे अदृश्य डमरू धारण किये हुए हितेश नाचने लगा तांडव की मुद्रा में.........आज वाकई पता चल गया कि तांडव से वातावरण में अंनत ऊर्जा उत्पन्न होती है।

अचानक नाचते-नाचते हितेश निढाल होकर गिर पड़ा जमीन पर.......उसको हालचाल पूछने की बजाए हमारे दोस्तों की कमेठी इस बात पर संज्ञान ले रही थी कि वाकई सॉफ्ट लेंडिंग (गिरना) न होने का कारण क्या था .......दायें पाँव का मुड़ना या बायें का! किसी को ये पूछना उचित नहीं लगा की भाई को प्यास लगी थी और प्यास के मारे भाई गिर पड़े थे।

इतने में दूर से भगेश आते दिखाई दिया, जिसको शुरुआत में नाश्ता लेने भेजा था।
भुख के मारे प्राण निकल रहे थे और भगेश किसी फ़रिश्ते से कम नहीं था।
आज हमे दूर से आता हुआ भगेश ऐसा लग रहा था जैसे मानो.....1996 में लॉर्ड्स की उछाल भरी पिचों पर कोई युवा भारतीय अपने डेब्यू मैच में दोहरा शतक लगाकर ड्रेसिंग रूम की तरफ आ रहा था.......उसके आते ही पूरा ड्रेसिंग रूम उसके स्वागत में जमीन पर गिर पड़ा!

न आव देखा न ताव .......जलेबी और समोसे खत्म।

भगेश ने महिपाल को बोला  "भाई तेरी आँखे लाल हो रही हैं"
महिपाल मुझसे  "वाकई मेरी आँखें लाल हो रही है?"
मैं भी शायर गालिब की तरह एक हाथ हवा में लहराते हुए.....

हाल ना पूछो आँखों का जनाब!
हाल ना पूछो आँखों का जनाब!
नैनों का रंग तो नैना ही जाने!!2

पता नहीं गालिब की आत्मा कहा से आ गई!
वैसे आड़े दिनों में तो मैं और मेरे बड़े भाई दोस्त की तरह ही रहते थे, लेकिन आज भांग ने सारी मर्यादाओं को नेस्तनाबूद कर दिया था।

मैं अपने भाई से " चलो बड़े भाई आज आपको मेरी गुलाबो से मिलता हूँ"
"चलो चलते है दोस्तों" बड़े भाई भी पूरे टशन में!

मैं गाड़ी चला रहा था और मेरे पीछे वाली सीट पर बड़े भाई दोनों हाथ बगल में समेटे, छाती बाहर निकालकर ऐसे बैठे थे। जैसे मानो आज महिष्मति साम्राज्य के बाहुबली नगर भ्रमण पर निकले हो और मैं उनके शाही रथ का सारथी और पीछे चल रही मित्रों की टोली बस आदेश का इंतजार कर रही थी.......की आक्रमण!!

जैसे ही हमसब मेरी गुलाबो की गली में दाखिल हुए, मैं स्वयं को रांझणा मूवी का धनुष मान बैठा.......मेरे कानों में गीत बज रहा था........राँझना हुआ मैं तेरा
             कौन तेरे बिन मेरा
             रौनकें तुम्ही से मेरी
              कौन तेरे बिन मेरा
           ओ… कौन तेरे बिन मेर


इतने में गुलाबो सफेद कुर्ता पहने हुए दिखाई दी........मुझको देखते ही उसने अपने चेहरे पर आ रही बालों की लट को गर्दन की लचक के झटके से पीछे किया.....मैं उसमे डूब गया!!

"काकीजी ने होलियों रा रोम रोम है" दोस्तों की टोली जोर से चिल्लाई!
मैंने न आव देखा न ताव......बाइक के एक्सीलेटर को ऐसा मरोड़ा जैसे बचपन में कुत्ते के कान मरोड़ता था!

और तेजी से चलाते हुए सब जोर-जोर से गीत गा रहे थे
मेनू पी नहीं है, मेनू पीला दी गई है!
जो भी सही है, मजा आ रहा है!!

उसके बाद सभी नींबू और छाछ की दुकान पर गए और पीने के बाद जोर से सभी ने एक साथ बोला......
भांग खानी होरी है, लेहरो लेनी दोरी है!!

✍️©हितेश राजपुरोहित "मुडी"

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